Thursday, December 16, 2010

शुरू करें फिर से ?.

आज जो मुड़ के देखा तो समझ मे आया
कभी न जान सकी मैं

तुम्हारी चाहत की शिद्दत
तुम्हारे यकीं का जूनून
तुम्हारा सब कुछ लुटा देना यूँ ही
बड़ा करना मुझे ,सर झुका के अपना
तुम्हारा निष्पाप , निर्दोष मन
तुम्हारा न जताने का यतन
तुम्हारे मुक़द्दस इरादे
वो अनकहे से वादे
वो ऊँचे सपनो के महल
वो गहरे प्रेम के भंवर
अगाध अपनापन , संयत ,अनुशासित मन

मैं नासमझ , न जान सकी ये सब
बस इतना जानती थी ....कुछ है ऐसा जो खींचता है अपनी तरफ

अब मुड़ के देखती हूँ तो लगता है
यदि जानती ,कह पाती ये सब
तो न मिलते बेसाख्ता ,आज यूँ बेसबब
मुझे देखते ही तुम्हारे चेहरे का उजास
बता गया बहुत कुछ अनायास ,

तुम थे विज्ञ , कहना चाहते थे ऐसा ही कुछ
जबान लड़खड़ाने का, हाँ तुम्हे भी है दुःख
अहसास छुपाते हो , बन के अवाक् , मूक

ये कहानी भी हमारी है ,रंगमंच भी अपना
असंभव तो नहीं, देखना फिर वो अधूरा सपना

क्या हुआ जो नहीं मिल पाए मुकाम , मंजिलें , जो थीं तय
क्या हुआ जो क्षरित हुई वो ऊर्जा , जिसे मानते थे अक्षय
क्या हुआ जो खोये से हो तुम और वीरान से हम
मिल के नहीं उठा सकते , क्या हम ये जोखिम?

कौन जाने ...दूसरा आधा भी हो सकता है बेहतर
साथ चलने का सुख है , हर सुख से बढ़कर

3 comments:

  1. आप की कविता में .....न चाहने का जीवन में एक से दुसरे को ..उसके मायने .....फिर उसका अहसाह करती है ...फिर से उनके मायने सझता जाता है इन्सान एक एक बात का ....फिर से जीवन में उसको सकारत्मक पहलु नजर आते हुए और अंत में आहसास हो ही गया की ...साथ चलने का सुख है , हर सुख से बढ़कर ......जीने की कला का अच्छा सन्देश जी !!!!!!!बधाई मंजुलाजी !!!!

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  2. मंजुला जी... आपकी लेखनी की हमेशा से कायल रहीं हूँ... आपकी हर रचना पहले से १ नहीं १० क़दम आगे होती है... उसे रचना कहना गलत होगा... वो तो आपकी सोच होती है... वो सोच जिसके तार हर किसी की ज़िन्दगी से कहीं ना कहीं जुड़े हुए होते हैं... आपकी इस रचना के एक एक शब्द में खुद को विचरता हुआ पाती हूँ... कुछ वो सवाल जो अपनें अंदर ही रहते हैं आप उन्हें इतने संयोजित भाषा में हम सबके सामने पेश करती हैं के बस हैरान रह जाते हैं हम सब... सम्जः के भी ना समझना और समझा के उस न समझने वाले पल का अफ़सोस जीवन भर सालता रहता है हमें... जिसे आपने शब्दों में बहुत ही सुन्दरता से बाँधा है... बधाई...!!

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