Sunday, December 19, 2010

वो आइना.

मेरी हर हरकत,हर शिकन से था वाकिफ

याद कराता था सदा वो चेहरे मेरे
रखा जिन्हें मुश्किल से बंद किसी संदूक में
मेरे वो अक्स , वो दोस्तों के मुखौटे सारे
जो किये दफ़न बिना परवाह किन्ही खंडहरों में
मेरी वो मासूमियत , वो नादानियाँ ,वो बचपने
भुला देना चाहता हूँ कैसे भी ,कुछ भी कर के

मेरी अभ्यस्त मुस्कुराहटें , कारगर से दमदार कहकहे
सीखी दिलकश अदाएं , भव्य लुभावने अंदाज़
कौन देख पाता है , आँखों में बसे वीराने को

सख्त,कठोर,निर्मम ,पत्थर हुआ ये दिल मेरा
अक्स बनाने में बना निपुण देखे क्यूँकर अपना चेहरा
मेरे बने रहने के लिए ...ज़रूरी था टूटना
कमज़ोर, नाज़ुक, सुकोमल, क्षण-भंगुर आईने का

कीमत चुकानी पड़ती है ,हर बार बहार की
चूँकि किरचों में नहीं जी सकते ये ज़िन्दगी हर दम
.

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