मेरे शोर को हंसी समझते हैं सब
अनजान हैं मेरे मुस्कुराते से मौन से
मेरी यात्रा हुई शुरू अकस्मात्
वेग बन के उठाया वो पहला कदम
बचपन की उल्लास भरी तरंग
...पत्थरों से सर टकराती
कभी उफनती , कभी बिफरती
...कभी अल्हड हो खिलखिलाती
कभी अठखेलियाँ कर रिझाती
कभी माँ बन हूँ दुलराती
कभी सबका जीवन संवारती
सभी की पूजा स्वीकारती
मैं
बरसों से थी उन चरणों को तरसती
जिनमे कर दूं सब अर्पण
जो समां सकें मेरे अस्तित्व को
आज अनजाने ही
बिन आहट, बिन बताये , बिना बुलाये
चले आये ...सहज ही धर दिया खुद को मेरी गोद में
लो, कहती हो न खुद को नदी
करती सभी की तृषा शांत
तो भी स्वयं हो इतनी क्लांत!!!
प्रेम देने के लिए व्यग्र , विह्वल
लो, मैं खुद आया हूँ चलकर
उस सम्पूर्णता से हुई मैं परितृप्त
उदास नहीं , बस हूँ खुद में मस्त
ऐसी किस्मत हर नदी की होती नहीं
सागर खुद ले समेट, तो भी खोती नहीं
चाहती है हर नदी बस सम्पूर्ण समर्पण
यही प्रकृति उसकी , न करो नियंत्रण
अत्यंत खूबसूरत एवं प्रभावी रचना !
ReplyDeleteऐसी किस्मत हर नदी की होती नहीं
सागर खुद ले समेट, तो भी खोती नहीं
चाहती है हर नदी बस सम्पूर्ण समर्पण
यही प्रकृति उसकी , न करो नियंत्रण
बहुत सार्थक सन्देश के साथ बेहतरीन प्रस्तुति ! मेरी बधाई एवं शुभकामनायें स्वीकार करें !
आज अनजाने ही
ReplyDeleteबिन आहट, बिन बताये , बिना बुलाये
चले आये ...सहज ही धर दिया खुद को मेरी गोद में
लो, कहती हो न खुद को नदी
करती सभी की तृषा शांत
तो भी स्वयं हो इतनी क्लांत!!!
प्रेम देने के लिए व्यग्र , विह्वल
लो, मैं खुद आया हूँ चलकर
सुंदर पंक्तियाँ ....गहन अभिव्यक्ति .....
बहुत बहुत अनुग्रहित हूँ....धन्यवाद्
ReplyDeleteऐसी किस्मत हर नदी की होती नहीं
ReplyDeleteसागर खुद ले समेट, तो भी खोती नहीं
चाहती है हर नदी बस सम्पूर्ण समर्पण
यही प्रकृति उसकी , न करो नियंत्रण..
गहन चिंतन...सुन्दर सार्थक अभिव्यक्ति..बहुत सुन्दर
धन्यवाद् कैलाश जी
ReplyDeleteअब तक कि सबसे सुन्दर रचना मंजुला जी
ReplyDeleteपढकर अभिभूत हूँ मंजुला जी...
ReplyDeleteबधाई स्वीकारें...
सस्नेह
गीता
manjula , sundar kavita ..badhai!
ReplyDeleteसुन्दर ! प्रेम के परितोष को सुन्दर शब्दों में बाँधा है आपने !
ReplyDeleteऐसी किस्मत हर नदी की होती नहीं
ReplyDeleteसागर खुद ले समेट, तो भी खोती नहीं
चाहती है हर नदी बस सम्पूर्ण समर्पण
यही प्रकृति उसकी , न करो नियंत्रण...
बहुत सुन्दर