Wednesday, December 8, 2010

साहस, करो एक बार फिर.

संभव नहीं है प्रेम में मोहित हो उड़ना निर्द्वंद
आकाश है सीमित , रिवायतों और रिवाजों में

रिश्तों और स्वार्थों की अनदेखी सी कड़ियाँ ,
बाँध लेती हैं सायास हर अभिव्यक्ति को

टूटी माना जिन्हें , वही जंजीरे अमरबेल की
पाश सी हर बार ,नए रूपों में

ये खुला हुआ समां, यूँ ही हो जाता है गुम
समंदर शांत , रुकी सी नदी ,
हवा का एक कतरा भी नहीं, पंछी चुप
जिंदगी जैसे भूल जाये होना अपना
यादें भी नहीं बाकी...

उजाला चुभता सा , चांदनी सर्द
क्षुब्ध ह्रदय , क्लेशमय आंसू
खीझते स्वयं की लाचारगी पे
भ्रम के कोहरे से धुआं हुआ विश्वास
क्यूंकि भरोसे हालात के होते हैं ग़ुलाम

उस एक पल रुक जाता है सब
दिल के दरवाज़े हो बंद जब

परदे उठाने का साहस, करो एक बार फिर
फैलने दो अपनेपन का उजास ....संभव है निर्दोष प्यार अब भी

5 comments:

  1. saahas hai to poora aasamaan apna hai...
    kya nahi sambhav!!!
    sundar rachna!!

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  2. bahut hridaysparshi rachna..........

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  3. साहस के बिना कुछ संभव नहीं ,, पर विशवास कि डोर का होना भी उतना ज़रुरी ,,, सच में संभव है निर्दोष प्यार ,,, अब भी

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  4. मंजुला जी आपकी रचना बहुत पसंद आई ... आज चर्चामंच में आपकी कविता है ..आज १७-१२-२०१० को आपकी यह रचना चर्चामंच में रखी है.. आप वहाँ अपने विचारों से अनुग्रहित कीजियेगा .. http://charchamanch.blogspot.com ..आपका शुक्रिया

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  5. परदे उठाने का साहस, करो एक बार फिर
    फैलने दो अपनेपन का उजास ....संभव है निर्दोष प्यार अब भी

    बहुत सुन्दर भाव ..

    कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...

    वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
    डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .

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