प्रश्नों से पशेमान हम
प्रश्न हैं बेकल , पूछे जाने को बेज़ार
प्रश्न बन गए रिवाज़ से ......निभाते हैं सब
प्रश्न हैं बस एक तिनका....सहारा देते सब चैनलों को
कुछ कलाबाजियां, कुछ मशविरे
और फिर 'मुन्नी' ओर 'शीला' के चर्चे
रह जाती है हक्की-बक्की भीड़ ...दिशा की खोज में
और जला पाती है बस मोमबत्तियां
सच कहाँ दीखता है मद्धिम प्रकाश में
भीड़ हो के भी निर्बल....एकाकी सी, लाचार
कभी बजाती है ढोल-ताशे भी
आने वाला कल अवश्य होगा सुनहरा ....
जीतेगा आम आदमी कभी तो
और फिर हो जाती है तितर-बितर
रोज़मर्रा की जद्दो-जहद में आदमियत जाती है बिखर
दंभ में झूमता दुराग्रह , गर्वित है इस बिखरन पर
रक्त चरित्र रचे जा रहे चंहु ओर....
रक्तबीज जी उठता रह रह कर
हथियारों को बल मानने वाली सोच
आज इन्ही से हो गयी निर्बल
फिर शिव की तलाशो , फिर पुकारो काली को
या फिर
हटा दो प्रश्नचिंह किताबों से ...उत्तर की औपचारिकता ही ख़त्म
.
रोज़मर्रा की जद्दो-जहद में आदमियत जाती है बिखर
ReplyDeletebahutsateek baat kahi hai.....
is jaddojahad ke beech aadmiyat ko bachaye rakhna hi prashno ka shashwat uttar ho sakta hai!!!
sundar abhivyakti!!!
हटा दो प्रश्नचिंह किताबों से ...उत्तर की औपचारिकता ही ख़त्म
ReplyDeleteएक जद्दो-जहद से निकलती कविता .. रक्त बीज का जी उठना.. किसी क्रान्ति में शिव तलाशती , काली की गुहार लगाती ...जलती मशाल सी कविता .. अंत में सभी औपचारिकताओं की गठरियाँ उठा कर फेंकती ..... सीधा प्रहार करती ... एक विचारोत्तेजक कविता ... बधाई , मंजुला ..
बहुत सुंदर मंजुला जी ,,,अंदर तक झकजोरती कविता ,,हटा दो प्रशन चिन्ह किताबों से ,, उत्तेर कि ओपचारिकता ही खत्म ,,, सच में जीवन रूपी किताब से सारे प्रशन हटा दिय जाएँ तो,,,, तो भी क्या हम अपनी यात्रा में बने रह पायेंगे .,,,
ReplyDeleteशायद कुछ प्रशन अनिवार...्य ना होकर भी अनिवार्य हो जाते हैं