यकायक तुम्हारे आने से
एक बवंडर सा उठा
क्षत-विक्षत हो दिमाग किसी कोने में गिरा
और दिल बन गया है सागर उफनता
जैसे सिन्धु-तट पे पूर्णिमा के चाँद का समां
मनोरम भयावहता लिए ....
डर और संशय से भीगी रेत पे
मदमाती लहरों की मनमोहकता में बंधा
पतवार छोड़ने में असमर्थ
पर ज्ञान के मोती पाने को उत्सुक ....मैं
मन और बुद्धि की पहेलियाँ बूझने को तत्पर
दे पाओगे तुममे बसा दृढ़ता और धैर्य
साहस और लगन
बनने दोगे मुझे ...तुम सा
क्या मैं भी लगा सकूंगा ग़ोता गहरा ....
स्वयं को पाने के लिए
मंजुला जी
ReplyDeleteउपमा अलंकार का अदभुत उदाहरण यह रचना और बेहद ही भावपुर्ण ।
काव्यशैली बेहद उम्दा और और सार्थक सन्देश को अपने अन्दर समाहित करती हुई यह रचना वाकई बेहद उतकृष्ठ है ।
सादर !
सुन्दर भावप्रवण एवं आत्म मंथन करती कविता ,,,,,,इस सुन्दर कृति के लिए बधाई ..मंजुला जी ...... .
ReplyDeleteमंजुला जी..........बहुत सुन्दर.......
ReplyDeleteज्ञान पाने के लिए उत्सुक .......एक आग्रह......मुझे अपना जैसे बना लो.........मुझमे साहस और लगन दे दो.........जिस से कि मै.....अपनी दिल और दिमाग की अनबुझ पहेलियों को सुलझा सकु.....और अपने को पा सकु......
यह पावन आग्रह स्वीकार हो...
ReplyDeleteसुन्दर कृति!
बहुत सुन्दर ,,,
ReplyDeleteसच्चे भाव से सजी कविता
मंजुला जी एक और सुंदर प्रस्तुति| बधाई स्वीकार करें|
ReplyDeleteविश्वास और अविश्वास के बबंडर में घूमते मन को बाँधने की कोसिस /
ReplyDeleteसुंदर पोस्ट /
ऐसी भी बातें होती हैं,
ReplyDeleteऐसी भी बातें होती हैं,
कुछ दिल ने कहा,
कुछ भी नहीं,...
कुछ दिल ने सुना,
कुछ भी नहीं ....!